महाकाल का इतिहास
महाकालेश्वर मंदिर की महिमा अपरम्पार है इनकी सेवा में भगवान राम और कृष्ण में भी सादर अंजलि अर्पित की है अनेक कवि एवं वेदों में भगवान महाकालेश्वर की पूजन का अर्चन का एवं दर्शन का महत्व बताया है | महाकालेश्वर मंदिर की महिमा के लिए एवं विशिष्ट के लिए हमें मालवा भूमि की प्राग- एतिहासिक पूर्व की स्तिथि पर द्रष्टि पत करना होगा प्रलाय्कलिन – भारत की हमारे समक्ष की दुन्धली से कल्पना रेखा है जिसके पश्यात यदि कही मानव द्रष्टि के प्रारंभिक विस्तार का कारन स्थल ज्ञात होता है तो वह मालवा प्रदेश ही है और इसी कारण अवंती देश की पौराणिक विभिन्न नामावलिया रहस्य से परिपूर्ण है इसमें भी प्रतिकल्पा शब्द ऐसा है जो विभिन्न युगों में इस प्रदेश की अस्तित्व की सुचना देता है महा ऋषि वाल्मीकि देश प्रणित रामायण की पुरातनता इतिहास में निसंदिक्ध है की वैदिक रामायण युग में अवंतिका की आर्य संस्कृति की रक्षा विस्तार और व्यापकता एक नहीं अनेक परम सिद्ध है |
उप्निशेद और असंख्य ग्रंथो में वरह्पुरण की उस पद संगती को सबल बनाया है जो इस भारत भूमि के नाभि देश अवस्था में शारीर शतर के मानव – मानचित्र के अवंतिका पूरी में स्थित है और इसे उप्निशेदो ने भी प्रम्नित किया है इसी कारण महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की द्वासश संख्या से उठकर म्रत्यु लोक का सर्वमान्य देवता मन गया है भारत में कही भी प्रमुख शिव मंदिरों में नंदादीप (निरंतर प्रज्वलित रहने वाला) दीपक लगाने की शास्त्रीय प्रथा है महाकालेश्वर के इस पुरातन मंदिर में भी यह पद्दति अज्ञात काल से प्रचलित चली आ रही है जो जो शासन इस महामिम हुए उन्होंने भी नंदादीप और महाकालेश्वर मंदिर में होने वाली पूजन अर्चन कार्य में अपनी शाशकीय सहायता श्रधा पूर्वक भेट की फिर हन्दू राज्य तंत्रों में तो पध्दति का नियंत्रण औशिद होते रहना सहज ही था प्रातः प्रयेक शासक ने पूर्व प्रथा के अनुसार अपना कर्तव्य समजा की अपना शासन काल में पूर्व की तरह समर्थन करे परन्तु आश्चर्य एवं प्रसन्नता की बात यह है की हिन्दू शासको की तरह मुश्लिम शासनकाल में भी कई उग्र और उदार शासको सम्राटो और अनेक स्थानीय प्रतिनिधि स्वरुप अधिकारियो ने उज्जैन के धार्मिक मंदिर मठों एवं पूजन स्थलों की अदिकंश परम्पराव की ठीक हिन्दुओ की तरह और कही कही उससे भी अधिक पोषित करने की विशेषताए प्रदान की |
हिजरी सन १०६५ की घटना है महाकालेश्वर के तत्कालीन पुजारी भ्रमण ने अनेक शासको की सनदो प्रमाण पत्रों के साथ तत्कालीन सम्राट आलमगीर के निकट निवेदन किहा की महाकालेश्वर मंदिर में नंदा दीपक जलने के लिए पिछले शासको की आज्ञा अनुसार व्यय प्रदान होते रहा है इसलिए उन सम्राटो की आज्ञा पत्रों के अनुसार ही आपके शासनकाल में भी उस परंपरा को पोषण समर्थन किया जाना चाहिए इस निवेदन पर सम्राट ने संदो की जाच परताल की एवं सही पाकर उस समय की तस्तिक कर दी की चार सेर घी रोजाना नंदादीप जलाने के लिए स्वीकृत किया यह सालन मुस्लिम सम्राट की धर्म सहिशुनता का एक आदर्श उदहारण है उन संदो के अनुसार ही एक और सनद बादशाह गोरी शाह की है यह पुजारी श्री गोड़ चुने बसंत लाल जी को महाकालेश्वर मंदिर के दर्शन करने पर पीडी दर पीडी के अनुसार भेट लेने और एवं हर घर से एक रूपया लेने के किये दी गयी है यह सनद उज्जैन में लिखी गयी और इसके लेखक अजीर अली महोमद है और मुंशी आमिर खान फागुन १४ संवत १४६५ है जिसके नीचे रामचरण के भी हस्ताक्षर है | यह सनद बसंतलाल जी भाह्मन के वंशज श्री लक्ष्मी नारायण जी पुजारी के पास मौजूद है | महाकालेश्वर मंदिर की परमपराओ में मंदिर के पुजारी परिवार का सम्पूर्ण योगदान रहा है
महाकालेश्वर मंदिर की प्रतिमा स्वयं भू है और विशाल है| मूर्ति की विस्त्रिन जलाधारी रजत की सुन्दर कलामायी है यह मूर्ति दक्षिण मुखीं है तांत्रिको ने जिस शिव की दक्षिण मूर्ति की आराधना का महत्व पर्तिपादित किया है वह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में केवल महाकाल बाबा को ही प्राप्त है मंदिर के गर्भ गृह में पछिम में गणेश जी उत्तर में माँ पार्वती पूर्व में कार्तिक स्वामी की प्रतिमा स्थापित है शिवलिंग के ऊपर रजत का रूद्र यन्त्र स्थापित किया गया है इसमें शिव के अलग अलग नामो से स्तुति की गयी है तथा यह कवच धरी है मूर्ति की सम्मुख नंदेषर की प्रतिमा स्थापित है महाकालेश्वर के ठीक ऊपर का भाग पर ओमकारेश्वर मंदिर के ऊपर नागचंद्रेश्वर का मंदिर है |
यत पिंडेतत भ्र्ह्मांड है | इस उक्ति के अनश्वर पिंड शारीर के नाभिक स्थान को योगिक शब्दों में मणिपुर चक्र की संघ्या की है मणिपुर को ही वेदों में अम्रतास्य नाभि कहा है इसके अनुसार यह भी मन्ना चाहिए की नाभि स्थल अमृत संपनन स्थान है तो यहाँ के देव महाकाल की रूप में प्रदुभुत है बहुदा उज्जैनी को महकल्पुरी कहने का यही एक कारण है | वैज्ञानिक एवं प्राकतिक द्रष्टि से भी नाभि देश के मान्य स्थानों को प्राप्त है खुकी उत्तरी ध्रुव की स्तिथि पर २१ मार्च से ६ मॉस के दिनों के तीन मास बीत जाने पर सूर्य दक्षिण शितिज से अत्यंत दूर के अंतर पर चला जाता है आचार्य वरह्मीर की मान्यता के अनुसार उस समय सूर्य उज्जैन के ठीक मस्तक पर आता है सूर्य की ठीक मस्तक की स्तिथि विश्व में उज्जैन के अतिरिक्त कही प्राप्त नहीं होती है इसी प्रक्त्रतिक और भागोलिक विशेहता के कारण उज्जजयनी ही एक ऐसा स्थान है जिसमे ठीक काल एवं ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है उज्ज्जयिनी को ग्रीन विच कहने का कारण भी यही है |