देव नगरी उज्जयिनी

पोराणिक उज्जैन

आज जो नगर उज्जैन नाम से जाना जाता है वह अतीत में अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा,अमरावती आदि अनेक नामों से अभिहित रहा। मानव सभ्यता के प्रारंभ से यह भारत के एक महान तीर्थ-स्थल के रूप में विकसित हुआ। पुण्य सलिला क्षिप्रा के दाहिने तट पर बसे इस नगर को भारत की मोक्षदायक सप्तपुरियों में एक माना गया है।

उज्जैन, विक्रमादित्य की अवंतिका जिसकी रक्षा कालों के काल महाकाल करते हैं। इस नगर को मध्यप्रदेश की धार्मिक राजधानी की उपाधि प्राप्त है। शहर की हर गली, हर मोड़, चौराहे पर एक सुंदर मंदिर नजर आता है। उज्जैन को प्राचीनकाल में अंवति, अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, नंदनी, अमरावती, कनकश्रृंगा, पद्मावती, प्रतिकल्पा, चूड़ामणि आदि नामों से जाना जाता था।

उज्जैन मंदिरों के अलावा सम्राट विक्रमादित्य (जिनके नाम से विक्रम संवत चलाया गया) और महाकवि कालिदास के कारण ख्यात है। विश्व प्रसिद्ध नाटककार और कालिदास ने अपने जीवन के पचास साल यहीं व्यतीत किए थे। इस दौरान उन्होंने अनेक कालजयी रचनाओं का सृजन किया।

उज्जैन में पवित्र नदी शिप्रा बहती है। शिप्रा का अर्थ होता है धीमा वेग और करधनी। इसी नदी के तट पर हर बारह साल में एक बार सिंहस्थ महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।

देखा जाए तो भारत का हृदय स्थल है मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश के बीचोबीच बसा है उज्जैन। अवंतिकापुरी अर्थात उज्जैन का इतिहास पाँच हजार साल से भी अधिक पुराना है। ईसा पूर्व पाँचवीं-छठी शताब्दी में सोलह जनपदों या राष्ट्रों में से एक अवंति जनपद का उल्लेख है। कालगणना के क्षेत्र में उज्जैन नगर का योगदान अविस्मरणीय है। स्टैण्डर्ड टाइम के लिए आज जो महत्ता ग्रीनविच की है, वही कभी उज्जैन की थी।

संसार में संभवत: कोई भी तीर्थ स्थान ऐसा नहीं होगा जिसे तीथों का तीर्थ कहा जा सके। एक तीर्थ के रूप में अनेक नगरियों की अपनी-अपनी मान्यताएँ हैं, विश्वास है। परंतु उज्जैन सही मायने में तीर्थों का तीर्थ है। महाकालेश्वर की प्राणप्रतिष्ठा यहाँ हुईं हैं। ऐसी भी मान्यता है कि महाप्रलय के बाद मानव सृष्टि का आरंभ इसी पावन भू-भाग से हुआ है।

महाकाल तीर्थ क्षेत्र की महानता केदार तीर्थ और बनारस (काशी) से भी अधिक मानी गयी है। सर्वाधिक पुण्यमय भूमि, अद्भुत पापनाशी, अलौकिक शांति और मनोवांछित फल देने में इस क्षेत्र का पृथ्वी पर कोई सानी नहीं है।

महाकालेश्वर और वीर विक्रमादित्य की प्रसिध्द नगरी उज्जैन भारत की अत्यंत प्राचीन नगरी है। भारतीय पुरातन साहित्य में अनेक स्थानों पर इसकी महिमा और वैभव के वर्णन है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से उज्जैन (अवंतिका) का महत्व उल्लेखनीय है।

आज जो नगर उज्जैन नाम से जाना जाता है वह अतीत में अवंतिका,विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा,अमरावती आदि अनेक नामों से अभिहित रहा। मानव सभ्यता के प्रारंभ से यह भारत के एक महान तीर्थ-स्थल के रूप में विकसित हुआ। पुण्य सलिला क्षिप्रा के दाहिने तट पर बसे इस नगर को भारत की मोक्षदायक सप्तपुरियों में एक माना गया है।

कहा जाता है कि उज्जयिनी का प्रत्येक कंकर शंकर का ही स्वरूप है। भारत के सर्वज्ञात द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक महालोकेश भगवान महाकालेश्वर तो यहाँ अनंत काल से विराजित है ही। स्कन्द पुराण के अवन्तिखंड में वर्णित चौरासी महादेव का अपना अलग ही माहत्म्य है।

महाकाल की इस नगरी का महत्व इसलिये भी है कि यहां पर पांच वस्तु-श्मशान,उखर,क्षेत्र हरसिध्द पीठ तथा वन एक ही स्थान पर हैं,जो अन्यत्र दुर्लभ है।

नालन्दा और काशी के पूर्व उज्जयिनी ने शैक्षणिक महत्ता प्राप्त कर ली थी। इसी कारण बलराम-कृष्ण को अपने मित्र सुदामा के साथ उज्जयिनी के सान्दीपनि आश्रम में विद्याध्ययन के लिये आना पत्रडा।

उज्जयिनी स्थित सुप्रसिध्द पुरातन शिक्षा केंद्र में चारों वेदों, वेदांगों, उपनिषदों आदि का सांगोपांग अध्यापन होता था। मंत्र,देवताओं के ज्ञान,धर्म शास्र,न्याय शास्र, राजनीति शास्र,हस्तशिल्प, अश्व शिक्षा, समस्त कलाओं, लेखा, गणित, गान्धर्व-वेद,वैद्यक-शास्र, अस्र-शस्र आदि की शिक्षा व्यवस्था यहां पर थी। शास्रों के प्रयोगकी विधिवत् क्रियात्मक एवं प्रायोगिक जानकारी दी जाती थी। राजनीति के अध्येता संधि, विग्रह, यान,आसन,द्वेध और आश्रय आदि छ:भेदों का ज्ञान यहां प्राप्त करते थे।

उज्जयिनी के गौरवशाली विक्रमादित्य के राज्य में निवास करने वाले नवरत्नों को हमेशा याद किया जाता है। इनमें कवि-कुलगुरू कालिदास, प्रकांड ज्योतिषी वराह मिहिर, आयुर्वेद के सर्वोपरि आचार्य धनवंतरी, वैयाकरण वरूरूचि, अमरकोष के रचयिता ओर बौध्द धर्म के आचार्य अमर सिंह, नीतिसार ग्रंथ के रचयिता घट कर्पर, ज्योतिष के विद्वान क्षपणक, तंत्र साधन और बैताल कथाओ के नाम से जनश्रुतियों में लोकप्रिय बैताल भट्ट और शबर स्वामी के पुत्र शंकु का उल्लेख मिलता है। ज्योतिर्विदाभरण में उज्जयिनी, वहां के राजा विक्रमादित्य,विक्रमादित्य की विजयें,उसके द्वारा रोम के रोजा को पराजित करना तथा उसके आश्रित नव रत्नों सहित अनेक विद्वानों की चर्चा पायी जाती है।

उज्जैन का इतिहास काफी लम्बा रहा है। उज्जैन के गढ़ क्षेत्र से हुयी खुदाई में आद्यैतिहासिक (protohistoric ) एवं प्रारंभिक लोहयुगीन सामग्री प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई है। पुरानों व महाभारत में उल्लेख आता है की वृष्णि-वीर कृष्ण व बलराम यहाँ गुरु सांदीपनी के आश्रम में विद्याप्राप्त करने हेतु आये थे। कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की ही राजकुमारी थी। उसके दो भाई विन्द एवं अनुविन्द महाभारत युद्ध में कौरवों की और से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। ईसा की छठी सदी में उज्जैन में एक अत्यंत प्रतापी राजा हुए जिनका नाम चंड प्रद्योत था। भारत के अन्य शासक उससे भय खाते थे। उसकी दुहिता वासवदत्ता एवं वत्सनरेश उदयन की प्रणय गाथा इतिहास प्रसिद्द है । प्रद्योत वंश के उपरांत उज्जैन मगध साम्राज्य का अंग बन गया।
महाकवि कालिदास उज्जयिनी के इतिहास प्रसिध्द सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। इनको उज्जयिनी अत्यंत प्रिय थी। इसीलिये कालिदास ने उज्जयिनी का अत्यंत ही सुंदर वर्णन किया है। सम्राट विक्रमादित्य ही महाकवि कालिदास के वास्तविक आश्रयदाता के रूप में प्रख्यात है।
महाकवि कालिदास की मालवा के प्रति गहरी आस्था थी। उज्जयिनी में ही उन्होंने अत्यधिक प्रवास-काल व्यतीत किया और यहींपर कालिदास ने उज्जयिनी के प्राचीन एवं गौरवशाली वैभव को देखा। वैभवशाली अट्टालिकाओं, उदयन, वासवदत्ता की प्रणय गाथा, भगवान महाकाल संध्याकालीन आरती तथा नृत्य करती गौरीगनाओं के सात ही क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व आदि सेभली भांति परिचित होने का अवसर भी प्राप्त किया हुआ जान पडता है।
‘मेघदूत’ में महाकवि कालिदास ने उज्जयिी का सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्यक्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पत्रडा। तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड (टुकडा) भी ले चले। वही स्वर्गखंड उज्जयिनी है। आगे महाकवि ने लिखा है कि उज्जयिनी भारत का वह प्रदेश है जहां के वृध्दजनइतिहास प्रसिध्द आधिपति राजा उदयन की प्रणय गाथा कहने में पूर्ण दक्ष है।
कालिदास के ‘मेघदूत’ में उज्जयिनी का वैभव आज भले ही विलप्त हो गया हो परंतु आज भी विश्व में उज्जयिनी का धार्मिक-पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व के सात ही ज्योतिक्ष क्षेत्र का महत्व भी प्रसिध्दहै। उज्जयिनी भारत की सात पुराण प्रसिध्द नगरियों में प्रमुख स्थान रखती है। उज्जयिनी में प्रति बारह वर्षों में सिंहस्थ महापर्व का आयोजन होता है।इस अवसर पर देश-विदेश से करोत्रडों श्रध्दालु भक्तजन, साधु-संत, महात्मा महामंडलेश्वर एवं अखात्रडा प्रमुख उज्जयिनी में कल्पवास कर मोक्ष प्राप्ति की मंगल कामना करते हैं।

ऐतिहासिक उज्जैन

प्रमाणिक इतिहास
उज्जयिनी की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई.सन600 वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। उस समय चंद्रप्रद्योत नामक सम्राट सिंहासनारूत्रढ थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था।

मौर्य साम्राज्य
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य यहाँ आया था. उसका पुत्र अशोक यहाँ का राज्यपाल रहा था। उसकी एक भार्या वेदिसा देवी से उसे महेंद्र और संघमित्रा जैसी संतान प्राप्त हुई जिसने कालांतर में श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था. मौर्य साम्राज्य के अभुदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार के पुत्र अशोक उज्जयिनी के समय नियुक्त हुए। बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक ने उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली और उज्जयिनी का सर्वांगीण विकास कियां सम्राट अशोकके पश्चात उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढाव देखा।
मौर्य साम्राज्य का पतन
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उज्जैन शकों और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन गया। शकों के पहले आक्रमण को उज्जैन के वीर विक्रमादित्य के नेतृत्व में यहाँ की जनता ने प्रथम सदी ईसा पूर्व विफल कर दिया था। कालांतर में विदेशी पश्चिमी शकों ने उज्जैन हस्त गत कर लिया। चस्टान व रुद्रदमन इस वंश के प्रतापी व लोक प्रिय महाक्षत्रप सिद्ध हुए।
गुप्त साम्राज्य
चौथी शताब्दी ई. में गुप्तों और औलिकरों ने मालवा से इन शकों की सत्ता समाप्त कर दी। शकों और गुप्तों के काल में इस क्षेत्र का अद्वितीय आर्थिक एवं औद्योगिक विकास हुआ। छठी से दसवीं सदी तक उज्जैन कलचुरियों, मैत्रकों, उत्तरगुप्तों (Later Guptas) पुष्यभूतियों , चालुक्यों, राष्ट्रकूटों व प्रतिहारों की राजनैतिक व सैनीक स्पर्धा का दृश्य देखता रहा।
सातवीं शताब्दी में उज्जैन कन्नौज के हर्षवर्धन साम्राज्य में विलीन हो गया। उस काल में उज्जैन का सर्वांगीण विकास भी होता रहा। सन् ६४८ ई. में हर्ष वर्धन की मृत्यु के पश्चात नवी शताब्दी तक उज्जैन परमारों के आधिपत्य में आया जो गयारहवीं शताब्दी तक कायम रहा इस काल में उज्जैन की उन्नति होती रही। इसके पश्चात उज्जैन चौहान और तोमर राजपूतों के अधिकारों मे आ गया। सन १००० से १३०० ई. तक मालवा परमार-शक्ति द्वारा शासित रहा। काफी समय तक उनकी राजधानी उज्जैन रही. इस काल में सीयक द्वितीय, मुंजदेव, भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन जैसे महान शासकों ने साहित्य, कला एवं संस्कृति की अभूतपूर्व सेवा की ।

दिल्ली सल्तनत
दिल्ली के दास एवं खिलजी सुल्तानों के आक्रमण के कारण परमार वंश का पतन हो गया। सन् १२३५ ई. में दिल्ली का शमशुद्दीन इल्तमिश विदिशा विजय करके उज्जैन की और आया यहां उस क्रूर शासक ने ने उज्जैन को न केवल बुरी तरह लूटा अपितु उनके प्राचीन मंदिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों का वैभव भी नष्ट किया। सन १४०६ में मालवा दिल्ली सल्तनत से मुक्त हो गया और उसकी राजधानी मांडू से धोरी, खिलजी व अफगान सुलतान स्वतंत्र राज्य करते रहे। मुग़ल सम्राट अकबर ने जब मालवा पर किया तो उज्जैन को प्रांतीय मुख्यालय बनाया गया. मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब यहाँ आये थे।

मराठों का अधिकार
सन् १७३७ ई. में उज्जैन सिंधिया वंश के अधिकार में आया उनका सन १८८० ई. तक एक छत्र राज्य रहा जिसमें उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। सिंधिया वंश की राजधानी उज्जैन बनी। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोध्दार कराया। इस वंश के संस्थापक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने वर्तमान महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया. सन १८१० में सिंधिया राजधानी ग्वालियर ले जाई गयी किन्तु उज्जैन का संस्कृतिक विकास जारी रहा। १९४८ में ग्वालियर राज्य का नवीन मध्य भारत में विलय हो गया।
उज्जयिनी में आज भी अनेक धार्मिक पौराणिक एवं ऐतिहासिक स्थान हैं जिनमें भगवान महाकालेश्वर मंदिर, गोपाल मंदिर, चौबीस खंभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिध्दिमां, गत्रढकालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिध्दवट, बोहरो का रोजा, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवगृह मंदिर, भूखी माता, भर्तृहरि गुफा, पीरमछन्दर नाथ समाधि, कालिया देह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश आदि प्रमुख हैं।